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मॉरीशस के दादासाहब फाल्के को हिंदी सिनेमा से क्या है मलाल ?

मॉरीशस से सर्वेश तिवारी

बॉलीवुड और मॉरीशस का रिश्ता काफी पुराना है। बीस के दशक में इस खूबसूरत देश ने कई फिल्मों में चार चाँद लगाया। कई फिल्मों में कहानी कमजोर होने के बावजूद बेहतरीन लोकेशन और संगीत ने फिल्म को गति प्रदान की। सिर्फ लोकेशन से फिल्म हिट या फ्लॉप होती है ये कहना भी गलत होगा। लेकिन लोकेशन के महत्व को नकारा भी नहीं जा सकता है। सफलता इसबात पर भी निर्भर करती है कि क्या फिल्मकार दर्शक से भावनात्मक तादात्म्य बना पाया है और फिल्म का समग्र प्रभाव क्या है। कभी-कभी फिल्मकार लोकेशन को एक पात्र बना देता है। आजादी के बाद के दशक में मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, देव आनंद, गुरुदत्त, राजकपूर की फिल्मों में मुंबई एक पात्र सी हैसियत रखता था। भारत में मुंबई की रोमांटिक छवि उन फिल्मों ने ही गढ़ी है। ठीक वैसे ही विदेशी लोकेशन में मॉरीशस को लेकर है। ये अलग बात है कि मॉरीशस के स्थानीय फिल्म निर्माता या निर्देशकों को अपने देश के बाहर बॉलीवुड जैसी सफलता नहीं मिल सकी। वजह कई है।
मॉरीशस के दादासाहब फाल्के कहे जाने वाले सुरेंद्र बृजमोहन अब भी अपने देश में काफी सम्भावना देखते हैं। उन्हें यकीन है अगर बेहतरीन कहानी और कलाकार हो तो नामुमकिन कुछ भी नहीं है। लेकिन आज स्थानीय स्तर पर दोनों की कमी है। सुरेंद्र बृजमोहन की 1975 में आई फिल्म ‘बिखरे सपने’ और 1978 की फिल्म ‘तारा’ और ‘खुदगर्ज’ पूरी तरह मॉरीशस में तैयार हुई थी। कलाकार से लेकर कहानी तक। बॉक्सऑफिस पर ‘बिखरे सपने’ हिट भी हुई। लेकिन ‘खुदगर्ज’ के बाद ऐसा क्यों नहीं हुआ ? कोई और फिल्मकार ऐसी हिम्मत क्यों नहीं जुटा सका ? खुद सुरेंद्र बृजमोहन तीन फिल्मों के निर्माण के बाद मॉरीशस टेलीविजन से जुड़ गए और चर्चित उद्घोषक हुए। मॉरीशस टेलीविजन से अब रिटायर होने के बाद अपना छोटा सा डिजिटल फिल्म स्टूडियो चला रहे हैं। उनके इस काम में उनकी बहू और बेटे का सहयोग भी मिलता रहता है। लेकिन फिल्म निर्माण करने की छटपटाहट उनमें आज भी दिखाई देती है।
सुरेंद्र बृजमोहन मॉरीशस सिनेमा के चलते फिरते ज्ञानकोष हैं। बॉलीवुड के तमाम दिग्गज कलाकारों और निर्माता निर्देशकों को सहयोग देने के बावजूद वो आज भी नयी पीढ़ी से कुछ सीखने में यकीन रखते हैं। भारत से उनके पूर्वजों के मॉरीशस आने की घटना को वो बड़े चाव से बयां करते हैं। एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं – 18वी शताब्दी में मिलन बृजमोहन हिंदुस्तान से यहाँ मजदूरी के लिए आए थे। उनके साथ था उनका बेटा प्रसाद, जो बिहार के दानापुर इलाके के चौड़ी बाजार के रहने वाले थे । उन दिनों काफी पत्र वहां से आते थे। प्रसाद बृजमोहन का बेटा वासुदेव बृजमोहन उर्फ़ छविलाल हुए। छविलाल का बेटा चिंता मणि बृजमोहन यानी ज्ञान हुए। इन्ही के बेटे सुरेंद्र बृजमोहन ने मॉरीशस में पहली बार हिंदी और भोजपुरी सिनेमा बनाने का सपना साकार किया। सुरेंद्र बृजमोहन के दादा छविलाल मॉरीशस में सरकारी कर्मचारी थे। वे मजदूर थे उस जमाने में स्कूल की बात दूर की थी। कम लोग ही पढाई के लिए जा पाते थे। स्कूल भी बहुत नहीं थे एक दो जगह पर दिख गया तो बड़ी बात। फिर भी चिंता मणि बृजमोहन यानी सुरेंद्र बृजमोहन के पिता पढाई के लिए विदेश गए। अंग्रेजों का ज़माना था। देश आज़ाद नहीं हुआ था। पढाई के बाद वे सेना में भर्ती हुए। उन दिनों जबरन सेना में भर्ती होना पड़ता था। वहां चार साल तक रहे। वहां से आने के बाद नौकरी की तलाश शुरू हुई । एक काम मिला लेकिन बस ड्राइवर का। उसके बाद उनके दिमाग में विचार आया क्यों न अपना काम करें। उनका रुझान फोटोग्राफी की तरफ बढ़ा।
सुरेंद्र बृजमोहन कहते हैं – हम जब बड़े हुए तो पोर्ट लुई के नयो कॉलेज में मुझे और मेरे भाई राज बृजमोहन को गांव के करीब यूनिवर्सल कॉलेज में दाखिला दिलाया गया। उसके बाद 1972 में हमने फोटोग्राफी का काम पिता जी के साथ शुरू किया। आज भी वहीं से फोटोग्राफी का काम चल रहा है। उस जमाने में एक फोटो के लिए हम 20 सेंट लेते थे। अगर बड़ा पोस्टकार्ड साइज का फोटो है तो 10 रुपया। उन दिनों गांव में फोटो स्टूडियो का होना बड़ी बात थी। ज्यादातर लोग इस काम के लिए पोर्ट लुई का ही रुख करते थे। ब्लैक एंड ह्वाइट के जमाने में तब फोटो प्रोसेस भी कठिन काम था। बड़े फोटो या पोस्टर के लिए लकड़ी के ब्लॉक बनाकर फोटो को प्रिंट किया जाता था। फिल्म देखने का शौक था। सोचा हम भी क्यों न फिल्म बनाये। इस व्यवसाय के साथ साथ ही हमने फिल्म निर्माण करने की हिम्मत जुटाई और भाई राज के साथ काम शुरू कर दिया। पिता जी का विदेश में अच्छा संपर्क था। फोटो कैमरे के साथ फिल्म निर्माण का कैमरा भी खरीद लिया । स्थानीय लोगों को कहानी के अनुसार एक्टिंग सिखाया। खुद ज्यादा ज्ञान तो नहीं था लेकिन बॉलीवुड की फ़िल्में देख कर जो सीखा था उससे पहली फिल्म ‘बिखरे सपने’ तैयार किया। खास बात ये थी किसी कलाकार ने इसके लिए कोई पैसा नहीं लिया। बस सभी में एक जुनून था परदे पर आने का। शूटिंग के बाद फिल्म प्रोसेस का कुछ काम अपने हाथ से किया। इतना आसान नहीं था। अभी तकनीक काफी बदल गई है। तब खुद अपने हाथ से साउंड को फिल्म में लगाना होता था। उस समय मॉरीशस में सिनेमा घर भी 20 से ज्यादा नहीं थे। फिल्मों को दिखाना भी आसान नहीं था। सिनेमा घर वाले अपने ऑफ डे या टाइम में ‘बिखरे सपने’ दिखाने को राजी हुए थे। उन्हें डर था कहीं फिल्म नहीं चली तो क्या होगा।
रिवर दू रेम्पार्ट जिले के बड़ोदा सिनेमाघर में फिल्म लगने के बाद लोगों को जब खबर लगी की ये स्थानीय कलाकार और निर्माता की है तब उनमें इसे देखने की उत्सुकता पैदा हुई। सुरेंद्र बृजमोहन की पहली फिल्म ने कारोबार भले अच्छा न किया हो, दूसरी फिल्म बनाने का जज्बा जरूर दिया। एक सिनेमा घर मालिक सुरेश अजोदा ने प्रोत्साहन देने के लिए एक पैसा नहीं लिया। भविष्य में भी किराया नहीं लेने का ऐलान कर दिया। बाद में पोर्ट लुई के भी कुछ सिनेमा घर मालिकों ने ऐसा ही सहयोग दिया।
समय के साथ जैसे ही वीडियो का दौर आया सिनेमा का क्रेज कम हो गया। घरों में लोगों ने वीडियो देखना शुरू कर दिया। एक वीडियो कैसेट में एक परिवार ही नहीं पूरा पड़ोस और मुहल्ला फिल्म देखने लगा। भारत की तरह मॉरीशस में भी उस दौर में व्यावसायिक सिनेमा को वीडियो पार्लर ने बड़ा झटका दिया। तब बृजमोहन बंधुओं ने भी दस -बीस मिनट की डाक्यूमेंट्री बनाना शुरू किया। कुछ सामाजिक तो कुछ पारिवारिक उत्सवों से जुडी फिल्में । डाक्यूमेंट्री को देश विदेश के फेस्टिवल में काफी सराहा भी गया और उसके निर्माण के लिए अवार्ड भी मिले। मॉरीशस के पड़ोसी देश रीयूनियन में सुरेंद्र बृजमोहन की फिल्म की खूब वाह वाही हुई। लेकिन गैर हिंदी भाषा की तरह काम नहीं मिला। मॉरीशस सरकार ने बृजमोहन बंधुओं की शिक्षा से सम्बंधित डाक्यूमेंट्री में दिलचस्पी दिखाई और कई दूसरी डाक्यूमेंट्री निर्माण में सहयोग दिया। आखिरी डाक्यूमेंट्री सर शिवसागर रामगुलाम पर थी। जिसकी काफी शूटिंग सुरेंद्र बृजमोहन के पिता जी ने किया था। तीस मिनट की इस फिल्म की फाइनल एडिटिंग चेन्नई के प्रसाद लैब में हुई थी। उस फिल्म में 60 और 70 के दशक की मिली जुली झलक भी थी। लोगों का रहन -सहन और संस्कृति सब कुछ उस फिल्म में थी। उस फिल्म के प्रदर्शन के बाद मॉरीशस की फ्रेंच मीडिया में काफी चर्चा हुई।
भारत की तुलना में आज मॉरीशस में हिंदी या भोजपुरी फिल्म निर्माण नहीं के बराबर है। इसकी बड़ी वजह सुरेंद्र बृजमोहन निर्माता ,निर्देशक और कलाकारों का इसके प्रति लगाव का नहीं होना मानते हैं। सरकार सहयोग तो दे रही है लेकिन बड़े फिल्म बाजार में खड़े होने के लिए जरुरी है यहाँ की फ़िल्में भी उनकी तरह सभी मानकों पर खरी हों। ऐसी कहानी पर फिल्म बनाने की जरूरत है जिससे दर्शक आकर्षित हो। बेशक बॉलीवुड या हॉलीवुड जैसी फिल्म न हो लेकिन एक तय मापदंड पर फिल्म जरूर पास होनी चाहिए। लोकेशन और कहानी के साथ कलाकारों का जीवंत अभिनय बहुत जरुरी है। यहाँ भोजपुरी बोलने वाले बहुत लोग हैं। भारत के लिए यहाँ इस भाषा में फ़िल्में बनाई जा सकती है लेकिन ये आसान नहीं है। शुरुआत स्थानीय स्तर पर छोटी फिल्मों से की जा सकती है। जो सभी उम्र और धर्म के लोगों को पसंद आए। इससे अभिनय में दिलचस्पी रखने वाले युवाओं को काम भी मिलेगा। रंगमंच के मॉरीशस में कई अच्छे कलाकार हैं। इन्हे तैयार करने में इंदिरा गाँधी सेंटर फॉर इंडियन कल्चर की बड़ी भूमिका है।

वेस्ट अफ्रीका के देश बुर्किना फासो से तुलना करे तो मॉरीशस खूबसूरती में उससे कम नहीं है। लेकिन फिल्म निर्माण में वो आज भी अफ्रीका के देशों में पहले नंबर है। खास बात ये है की उसकी ज्यादातर फिल्में अपने देश या अफ्रीकी देशों में ही प्रदर्शित होती हैं। कुछ फिल्म फ्रेंच भाषा में सब टाइटिल के साथ टीवी 5 पर भी देखी जा सकती हैं। ये अलग बात है की उनकी फ़िल्में देख कर लगता है की वे आज भी 70 या 80 के दशक में जी रहे हैं। सुरेंद्र बृजमोहन की माने तो उनकी फिल्म ‘खुदगर्ज’ बुर्किना फासो की फिल्मों से बेहतर है, लेकिन उसे डिजिटल रूप दे पाना आज मॉरीशस में आसान नहीं है। यूरोपियन फिल्मों से प्रभावित होने के कारण फिल्म में नेचुरल साउंड और म्यूजिक आम फिल्मों से इसे बिल्कुल अलग करती है। फिर भी ये काम आसान नहीं है। 54 देशों वाले अफ्रीका में फिल्म निर्माण की संभावना बहुत है। जरुरत है बॉलीवुड या हॉलीवुड की तरह फ़िल्मी संसाधनों को यहाँ उपलब्ध कराने की।

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