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प्रवासी भारतीयों को अपनों से जोड़ता है ‘नमस्ते’ :- सर्वेश तिवारी

इंदौर में प्रवासी भारतीय दिवस में शामिल होने के लिए दुनियाभर से जुटे भारतीय मूल के लोगों के लिए ये मौका खास रहा। देश आजादी के 75वें साल का जश्न मना रहा है। कई देशों के प्रतिनिधि पहली बार भारत पहुंचे थे । पिछली बार कोरोना महामारी के चलते यह दिन वर्चुअल मोड में मनाया गया था। करीब चार साल बाद प्रवासी भारतीय दिवस भव्य रूप से मनाया गया। कहने को ये दिवस हर दो साल में मनाया जाता है लेकिन इस खास दिन के लिए जहां- जहां भारतीय हैं तैयारी पूरे साल होती है। खासकर अफ्रीका के देशों में। क्योंकि महात्मा गांधी 09 जनवरी 1915 को ही दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौटे थे और वापस आकर देश में आजादी की लौ जगाई थी। उनके वापस लौटने और स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत करने की याद में प्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाता है। भारतीय मूल के 3.4 करोड़ लोग बाहरी देशों में हैं। इस मौके पर जब वे जुटते हैं और आपस में ‘नमस्ते’ बोलते हैं तो कुछ पल के लिए यकीन करना मुश्किल होता है कि ये कनाडा, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया या अफ्रीका के किसी देश में रहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये दिवस आज ऐसा मंच बन गया है जो प्रवासी भारतीय और देशवासियों के बीच नेटवर्क का काम कर रहा है। इसका मकसद सिर्फ निवेश को बढ़ावा देना ही नहीं है बल्कि युवा पीढ़ी को भारतीय संस्कृति से जोड़ें रखना भी है।
फिजी और मॉरीशस में हिंदी के कई लेखक हैं जो इस दिवस में शामिल होने के साथ भारत में अपनी पुस्तक के प्रकाशन या विमोचन के लिए भी उत्सुक रहते हैं। कई लेखक हैं जिन्हें इसमौके पर सम्मानित भी किया जाता है। गैर हिंदी भाषी देश में रहने के बावजूद हिंदी में सोचना या लिखना वाकई बड़ी बात है। आज भारत में हिंदी को लेकर भले बड़ी- बड़ी बातें या आयोजन होते हो सच यही है कि एक तबका ऐसा भी है जो हिंदी से ज्यादा तरज़ीह अंग्रेजी को देता है। मॉरीशस, रियूनियन भारत के बाहर ऐसे देश हैं जहां फ्रेंच भाषा का बोलबाला है। बिना इसके इस देश में कामकाज की कल्पना कठिन है। ऐसे में अगर कोई लेखक हिंदी में लिखता है तो ये गर्व के साथ इस भाषा के प्रति प्रेम को भी दर्शाता है।
पिछले प्रवासी दिवसों में फिजी, सूरीनाम के प्रधानमंत्री द्वारा ‘नमस्ते’ बोलना या हिंदी में सम्बोधित करना मीडिया में कई दिनों तक चर्चा में रहा। कोई गैर हिंदी भाषी आपका अभिवादन आपकी भाषा में करे तो काफी ख़ुशी होती है। मॉरीशस में कई फ्रेंच लेखक हुए हैं जिन्होंने आजीवन फ्रेंच में सोच और लेखन को बनाये रखने के बावजूद भारतीय संस्कृति और हिंदी भाषा को पूरा सम्मान दिया।

लेओविल लोम,रॉबर्ट एडवर्ड हार्ट,माल्कॉम दे शाज़ाल , अनत बिजाधर और मार्सेल काबों ऐसे लेखक हैं जिन्होंने भारतीय संस्कृति और भाषा को अपनी रचनाओं में पूरा सम्मान दिया। कवि, लेखक, समालोचक, पत्रकार तथा दार्शनिक, मार्सेल काबों मॉरीशस के फ्रेंच भाषी बुद्धिजीवी थे। इस क्रियोल कवि ने “नमस्ते” लघु उपन्यास लिखकर, देश के बुद्धिजीवियों के दिलो-दिमाग को झकझोर कर रख दिया। आज मॉरीशस में मार्सेल काबों की तुलना प्रसिद्ध फ्रेंच लेखक बेरनादे दे सेंपियेर से की जाती है। जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी में ‘पाल और वर्जिनी’ क्लासिक उपन्यास लिखा था। काबों गैर हिंदी भाषी होते हुए भी ‘नमस्ते’ से सभी हिंदी प्रेमियों के दिल में बस गए। आज कई लेखक उनसे प्रेरणा लेकर भारतीय संस्कृति और भाषा पर काम कर रहे हैं जो मिसाल है।
काबों बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनकी कविता में पारदर्शिता, संवेदनशीलता, आंसू की आर्द्रता, आये दिन की पीड़ा आदि जीवन के मर्म को छूने वाले सारे तत्त्व आविष्कृत हुए हैं। वे साहित्य के प्रतिरक्षक रहे हैं। बीलला-फोमालो, केलीबे-केलीबा, सेल्मा आदि कथा और कविताएं जो उनकी कुछ कृतियां हैं उनमें उनके हृदय के जख्म का उद्घाटन दिखता है। कुछ साहित्यिक आलोचक आये दिन यह बताते रहते हैं कि इस कथाकार और मनमौजी लेखक के मस्तिष्क में अपार साहित्यिक संस्कृतियां घूमती रहती थी। उनके ऐसे स्वस्थ विचार जो बौद्धिक ईमानदारी पर निर्भर होता था, वह कभी पलायन नहीं कर सका
मार्सेल काबों के अनुसार उनके दादा आलफ्रेद मोरोश एक कोच निर्माता थे जिनका जन्म 1843 में हुआ था। उन्होंने अपने पिता आलफ्रेद मोरोश के वंश-नाम के बदले, अपनी परदादी, लोरा काबों, जो एक ब्रेतोन महिला थीं, उनके वंश-नाम पर 1897 में नाम-परिवर्तन कराने की अपील की थी। (आलफ्रेद मोरोश, मार्सेल काबों के पितामह थे) और तभी से मोंरोश परिवार काबों नाम से जाना जाने लगा। फिर भी मोरोश नाम, पंजीकरण-दस्तावेजों में बराबर संलग्न रहा। आद्रियें दंपति की तीन संतानें हुईं। दो पुत्र और एक पुत्री, जिनमें मार्सेल सबसे बड़े थे। उनके बाद बहन रोलांद और भाई लुक जन्मे थे। यह निर्धन परिवार बाद में रिवर जिले के पेचित रिवियेर गांव में बस गया। यह पोर्ट लुई से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। 1917 में मार्सेल अभी पांच वर्ष की उम्र के थे कि उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। मार्सेल को गांव के एकमात्र स्कूल में प्रवेश मिला जहां उन्होंने छठी तक पढ़ाई की। अनाथ मार्सेल काबों को सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। परिवार के निर्वाह के लिए उनकी मां और उनको कई तरह के बेमेल काम करने पड़े। आगे चल कर उन्होंने भारतीय परिवेश की कहानी ‘नमस्ते’ की रचना की।
ऐसे ही मॉरिशसीय अखबारों में फ्रेंच लेखक शाज़ाल के लिखे गए लगभग आठ सौ लेखों के शीर्षकों में से ज्यादातर मॉरिशसीय सभ्यता का उल्लेख है, बाद में यूरोप की चर्चा (खास तौर से फ्रांसीसी सभ्यता) तीसरे स्थान पर भारत है जिस पर 18 लेख है। फिर अमरीका, अफ्रीका, चीन और इजराइल भी (“ले सालू पर ले ज्वीफ” नामक लेख के साथ)। मुस्लिम सभ्यता की चर्चा शीर्षक इसमें नहीं है परन्तु एक लेख में है जिसमें शाज़ाल ने एक ऐसे धर्म का वर्णन किया है जिसमें पुरोहित का स्थान नही हैं।

अपने लेख ‘अमर भारत’ में शाज़ाल एक ऐसे भारतीय के साथ अपनी बातचीत का सिलसिला सुनाते हैं जो अपनी मातृभूमि की जानकारी से बहुत खुश है। शाज़ाल भारत को ‘अध्यात्मिक राष्ट्र, आत्मा का देव’ के रूप में पेश करते हैं न केवल एक देश के रूप में समान रूप में बल्कि उस समान रूप से यूरोप को ‘एशिया का निकास’, ‘एटलेटिक में भेजा गया अन्तरीप’, ‘नवागत’ मानते हैं। तनाव में भी (1971) ‘लेंद फास आसों देस्तें’ (भारत और उसका भविष्य) नामक लेख में, वह इस देश को इजराइल के साथ पूर्व और पाश्चात्य के बीच कड़ी का विशेष स्थान मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि “पूर्व और पाश्चात्य के मिलाप से इस धरती पर एक नया युग आएगा।’ वह भारतवासियों को प्रोत्साहित करते हैं कि वे अमरीकी ” संस्कृति से बचें और वेदों के छन्दों का सहारा लें जोकि प्रकृति से जुड़े हुए हैं। यही विचार वह 1960 में प्रकाशित ‘एलोज दे लेंदुइस्म’ (हिन्दू-धर्म की प्रशंसा) नामक लेख में दोहराया है। इसी विचारधारा को अपनाते हुए, वह अनेक लेखों में टैगोर के दृढ़ वचन पर बल भी दिया है कि हिन्दू होने से पहले में विश्व का वासी हूँ। प्रवासी भारतीयों को उनकी संस्कृति से जोड़े रखने में ऐसे लेखकों के योगदान की जितनी तारीफ की जाए कम है।

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