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प्रदूषित वायुमण्डल व पर्यावरण, “परम तत्व” की कमी।

लेना होगा संकल्प कि आने वाली पीढ़ी को हम विषाक्त पर्यावरण ना दें।

पर्यावरण (Environment) शब्द का निर्माण दो शब्दों से मिल कर हुआ है। “पर्या” जो हमारे चारों ओर है, और “आवरण” जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है।
समय की गति बहुत तेज़ है समय अब बहुत तेज़ गति से चलता है और धरती पर सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग हुए । जब जब धरती पर अधर्म या अन्याय होता है कोई न कोई महापुरुष किसी न किसी रूप में दुष्टों व अन्याय को मिटाने आते रहे हैं । {ऐसी हमारी मान्यता है क्या सही में ऐसा है ?} इन चार युगों के बारे में अब हम बुनियादी अवधारणा पर विचार करें … कलयुग कितने समय का होता है ? कलयुग धार्मिक ग्रन्थों के हिसाब से चार लाख बत्तीस हज़ार वर्ष तक कायम रहता है । इससे दो गुणा समय द्वापर युग का होता है । त्रेता युग तीन गुणा समय और सतयुग चार गुणा समय होता है । तो , सभी चार युगों को मिला कर तैंतालीस लाख और बीस हज़ार वर्ष [43,20,000] का समय बनता है । इन चार युगों के समय को देखा जाय तो कलयुग का समय ही सबसे कम है । कलयुग के समय के दौरान कई युद्ध , झगड़े और संघर्ष होते रहते हैं । इसी युग में हमारी धरती को अनेकों रूप से दूषित, दोहन व खोखला किया गया, और वायुमण्डल धीरे-धीरे दूषित होता रहा है । वायुमण्डल के हर कण में , वायु तत्व के छोटे अयन और अणु होते हैं । वायुमण्डल के हर कण या अणु में , जो कुछ भी कहा और बोला जा रहा है, महसूस किया जा रहा है और सोचा जा रहा है , सब दर्ज़ हो जाता है । आज भी वह वायुमण्डल के हर कण में है , हर अणु में है । अगर हम उदाहरण के तौर पर, पाँच हज़ार वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण जो बांसुरी बजाया करते थे , उसे पुनः पेश किया जा सकता है । उसके वायु तत्व वायुमण्डल में मौजूद हैं , वह सारी रिकार्डिंग हवा में उपलब्ध है , वह सारी वायु तत्व से जुड़ जाती है । प्रत्येक कण और अणु में, जो वायु तत्व का एक कण और एक अणु है , वह सब जो कभी भी किया गया , कहा और देखा गया – वह सब हमेशा से मौजूद है ।
वायुमण्डल दूषित व विकृत क्यों हुआ ? क्योंकि हर संकल्प , कृत नकारात्मक होना शूरू हो गया । जैसे ही विभिन्न सतयुग , द्वापर , त्रेता और कलयुग आए , वायुमण्डल नकारात्मक होना शूरू हो गया । इसमे किसी कि कोई गलती नहीं है वायुमण्डल दूषित हो जाता है । पहले एक प्रतिशत नकारात्मकता होता है , फिर पाँच प्रतिशत दस प्रतिशत नकारात्मक होता हुआ 99 प्रतिशत तक नकारात्मक हो जाएगा । लेकिन 99 प्रतिशत तक आने में बहुत समय शेष होना चाहिए। हम यह कह सकते हैं अभी बहुत समय बचा हुआ है, और सब को मिलकर इसे दूषित होने से बचाने का प्रयास करना चाहिए । स्वास्थ्य और जीवन का पर्यावरण के साथ घनिष्ठ व सीधा संबंध है। पर्यावरण निसर्ग है, प्रकृति है। पर्यावरण, प्रकृति का वह एक ऐसा रक्षा कवच है जो मानव के विकास में सार्थक पृष्ठभूमि का काम करता है। प्रकृति की सुरक्षा हमारी गहन अहिंसा और आत्म संयम का परिचायक है। प्रकृति का प्रदूषण पर्यावरण के असंतुलन का और असंतुलन, अव्यवस्था और भूचाल का प्रतीक है। अत: प्राकृतिक संतुलन बनाये रखना हमारा धर्म है, कर्तव्य है और आवश्यकता भी। अन्यथा विनाश के कगारों पर हमारा जीवन बैठ जायेगा और कटी हुई पतंग—सा डगमगाने लगेगा। यह ऐतिहासिक और वैज्ञानिक सत्य है।

हमारे यहाँ प्रारंभ में पर्यावरण संरक्षण की समस्या नहीं थी। चारों दिशाओं में हरे-भरे खेत, घने जंगल, कल-कल करती नदियां, जड़ी-बूटियों से भरे पर्वत आदि सभी कुछ प्राकृतिक सुषमा का बखान करते थे। हमारा प्राचीन साहित्य इसी प्रकृति की सुरम्य छटा का वर्णन करता है। उसमें व्यक्ति की भद्र प्रकृति और उसकी पाप भीरूता का भी दिग्दर्शन होता है। वनस्पति जगत को कल्पवृक्ष कहकर प्रकृति का जो सम्मान यहाँ किया गया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
बसंत ऋतु में रंग बिरंगे मनमोहक, पुष्प, ग्रीष्म ऋतु का तपता हुआ वायुमंडल, वर्षा ऋतु की लहलहाती धरती और शीत ऋतु की सुहावनी रातें भला कौन भूल सकता है?
प्राचीन ऋषियों-मुनियों ने इस प्राकृतिक तत्व को न केवल भली भाँति समझ लिया था बल्कि उसे उन्होंने जीवन में उतारा भी था। वे प्रकृति के रम्य प्रांगण में स्वयं रहते थे, उसका आनंद लेते थे और वनवासी रहकर स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए प्रकृति की सुरक्षा किया करते थे।
हम आज के परिपेक्ष्य में देखें तो कुछ वर्षो से पर्यावरण संतुलन काफी डगमगा गया है। बढ़ती हुई आबादी तथा आधुनिक औद्योगिक मनोवृति ने पर्यावरण को बुरी तरह प्रदूषित कर दिया है। जंगल के जंगल कटते चलते जा रहे हैं। कीट नाशक दवाओं और रासायनिक खादों के प्रयोग से खाद्य सामग्री दूषित होती जा रही है, शुद्ध पेय जल कम होता जा रहा है। वन्य पशु-पक्षी लुप्त से हो रहे हैं, कई प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं । पर्यावरण के असंतुलित हो जाने से ऋतु चक्र में बदलाव आया। कहीं भीषण बाढ़ का प्रकोप बढ़ा तो कहीं सूखे से धरा प्यासी हो गई । शुद्ध हवा पानी मिलना मुश्किल सा हो गया, गंगा-नर्मदा आदि नदियों की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लग गया। इन सबके ज़िम्मेदारी हम सब की है । वातावरण को दूषित करने में किसी न किसी रूप में हम सब का योगदान रहा है । प्रकृति प्रदत्त सभी वनस्पतियां हम-आप जैसी सांस लेती हैं कार्बन डायआक्साइड के रूप में, और आक्सीजन के रूप में सांस छोड़ती हैं । यह कार्बन डायऑक्साइड पेड़-पौधों के हरे पदार्थ द्वारा सूर्य की किरणों के माध्यम से फिर आक्सीजन में बदल जाती है। इसलिए बाग-बगीचों का होना स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है। पेड़-पौधों की यह जीवन प्रक्रिया हमारे जीवन को संबल देती है, स्वस्थ हवा और पानी देकर आह्वान करती है, जीवन की संयमित और अहिंसक बनाये रखने का। सारा संसार कई जीवों से भरा हुआ है और हर जीव का अपना-अपना महत्व है। उनके अस्तित्व की हम उपेक्षा नहीं कर सकते। उनमें भी सुख-दु:ख के अनुभव करने की शक्ति होती है। उनका संरक्षण भी हमारा नैतिक उत्तरदायित्व है।
इसी तरह हमारे चारों ओर की भूमि, हवा और पानी हमारा पर्यावरण है। आज के भौतिक वातावरण में, विज्ञान की चकाचौंध में हम अज्ञानवश अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए अपने प्राकृतिक वातावरण को दूषित कर रहे हैं। हमने वन-उपवन को नष्ट-भ्रष्ट करके ऊँची-ऊँची अट्टालिकायें बना लीं, बड़े-बड़े कारखाने स्थापित कर लिए जिनसे हानिकारक रसायनों व गैसों का
उत्सर्जन हो रहा है, उपयोगी पशु-पक्षियों और कीड़ों मकोड़ों को समाप्त किया जा रहा है। वाहनों आदि से ध्वनि प्रदूषण, कारखानों की सारी गंदगी कूड़ा-कचड़ा आदि जलाशयों में बहा देने जैसे जल-प्रदूषण और गैसों से वायु-प्रदूषण हो रहा है। सारी प्राकृतिक संपदा को हम अपने क्षणिक लाभ के लिए असंतुलित करने के दोषी हैं। कुछ प्रदूषण प्रकृति से होता है पर उसे प्रकृति ही स्वयं ही उसकी भरपाई कर लेती है। जैसे-पेड़, पौधों की कार्बन डाईआक्साइड सूर्य की किरणों से साफ होकर आक्सीजन में बदल जाती है। वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान के आधार पर यह स्पष्ट किया है कि अलग-अलग तरह के पेड़—पौधों की पत्तियाँ विभिन्न गैसों आदि के जहर, धूल आदि से जूझकर पर्यावरण को स्वच्छ रखती है। जंगल कट जाने से वर्षा कम होती है, आवो-हवा बदल जाती है। यदि हमने पर्यावरण की सुरक्षा अब भी नहीं की तो पर्यावरण जहरीला होकर हमारे जीवन को तहस-नहस कर देगा।
जल को प्रदूषित करने में कागज, स्टील, शक्कर, वनस्पति घी, रसायन उद्योग, चमड़ा-शोधन, शराब उद्योग, वस्त्र-रंगाई उद्योग बहुत सहायक सिद्ध हो रहे हैं। सैप्टिक टैंकों और मलवाहक पाइपों के हिसाब से भी जल प्रदूषित हो रहा है यह दूषित जल निश्चित ही हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। पीलिया और कई वायरस रोग जैसे दस्त, हैजा, टायफाइड और सूक्ष्म जीवों व कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोग दूषित प्रदूषित जल के उपयोग से ही हो रहे हैं। हम जानते हैं एक बूंद पानी में हजारों जीव रहते हैं खुली आँखों से जो दिखाई नहीं देते हैं तथा यह वैज्ञानिक तथ्य है। आज के प्रदूषित पर्यावरण में नदियों और समुद्रों का जल भी उपयोगिता की दृष्टि से प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। खाड़ी युद्ध के संदर्भ में समुद्र में गिराये हुए तेल से समुद्री जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया और उसमें रहने वाले खाद्य शैवाल उपयोगी पदार्थ दूषित हो गये थे ।
वाहनों और औद्योगिक संसाधनों से निकलने वाली गैसों से वायुमंडल तेजी से दूषित हो रहा है। विषाक्त धुँआ और गैस मनुष्य के फेफड़ों में जाकर स्वास्थ्य पर कुठाराघात करती है और खाँसी, दमा, सिलिकोसिस, तपैदिक, केंसर आदि बीमारियाँ वायु प्रदूषण से ही हो रही है।
मोटरवाहनों, कल-कारखानों आदि का तीव्र शोर पर्यावरण को अपनी कम्पनों द्वारा दूषित करता है जिससे मनुष्य की श्रवण-शक्ति प्रभावी होती है और वे बहरे हो जाते हैं। इतना ही नहीं, शोर से उनका हृदय और मस्तिष्क भी कमजोर हो जाता है। शोर से अनिद्रा, पहले ही बीमार कर देने वाला ध्वनि प्रदूषण होगा , जिसे संयमित किया जाना परमावश्यक है क्योंकि इसका दुष्प्रभाव पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं और प्राकृतिक संपदा पर पड़ता है।

रेडियोधर्मी प्रदूषण:— अणु, परमाणु, हाइड्रोजन बमों आदि के परीक्षणों से। यह प्रदूषण वनस्पति को बुरी तरह सिर दर्द, तनाव, चिड़चिड़ाहट और झुंझलाहट भी बढ़ती है। इससे रोगियों को स्वस्थ होने में देर लगती है और कभी-कभी तो अधिक शोर रोगियों की मृत्यु का भी कारण बन जाता है। सन् १९०५ में नोबिल पुरस्कार विजेता राबर्ट कोच में ध्वनि प्रदूषण के बारे में कहा था कि एक दिन ऐसा आयेगा जब मनुष्य को स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में निर्दयी ‘‘शोर’’ से संघर्ष करना पड़ेगा। अब मोबाइल फोन के जरिये यह शोर घर-घर में घर कर चुका है। भूमि की उर्वरा शक्ति को नष्ट करता है और सारे वातावरण को विषैला बना देता है। हीरोशिमा और नागासाकी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। हमारे सामने एक उदाहरण और है भोपाल गैस कांड का, क्या हाल हुआ था हम सब उससे वाकिफ हैं । ऊर्जा का यदि सही उपयोग किया जावे तो वह मानव के विकास में बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है। कोयला, तेल, गैस, बिजली, भाप, पेट्रोल, डीजल आदि ऊर्जा के ही रूप हैं, जिनसे हम अपनी सुविधाओं जुटाते हैं। इसका ताप पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ता है। रेडियोधर्मी विकरण से त्वचा जल जाती है। यह न तो दिखाई देती है, न इसमें कोई गंध होती है पर शरीर पर घातक प्रभाव छोड़ती है।
इसी तरह ओजोन गैस हमारे लिए एक जीवनदायिनी शक्ति है जो रसायनिक क्रियाओं के द्वारा सूर्य की पराबैंगनी (ultra-violet) किरणों के विषैले विकिरण को पृथ्वी तक आने ही नहीं देती। परन्तु पिछले करीब तीन दशकों में हमने आधुनिकता की अंधी दौड़ में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का प्रचुर उत्पादन किया है जिससे ओजोन की छतरी में विशाल छिद्र हो चुके हैं और उसका क्षरण प्रारंभ हो गयाश है। फलत: प्रदूषण के कारण भयानक रोगों को हमने आमंत्रित कर लिया है। इसके बावजूद आवश्यकता को ध्यान में रखकर अमेरिका ने क्लोरों-फ्लोरो कार्बन का उत्पादन पुन: प्रारंभ कर दिया है। उक्त घातक रसायनों के लिए अमेरिका ही सर्वाधिक उत्तरदायी है ।
वायु प्रदूषण के साथ-साथ भूमि प्रदूषण भी आजकल बढ़ता जा रहा है। कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग का दुष्प्रभाव खाद्यान्न, फल, सब्जियों आदि पर पड़ता है और हमारे भोजन को दूषित कर देता है। कीटनाशक या केमिकल के प्रयोग से फल सब्जियों की विषाक्तता तो अब और भी बढ़ गई है। जिन कीटाणुओं पर इनका प्रयोग किया जाता है, उनमें अब निरोधक क्षमता बढ़ गयी है इससे इन दवाओं का असर उन पर कम हो गया है पर हमारे खान-पान में इन दवाओं से प्रभावित जो वनस्पतियां आ रही हैं उनसे कैंसर, मस्तिष्क ,रुधिर व हृदय रोगों में वृद्धि हुई हैं।लगता है हम खुद ही अपने विनाश का कारण बन रहे हैं । प्रतीत होता है कि हम अपनी अग्रिम पीढ़ी को विषाक्त वातावरण देकर जाएंगे ।

जनसंख्या वृद्धि का यह भी एक कुपरिणाम हुआ है कि वनों को काटकर खेती की जाने लगी है। उत्पादन बढाने वाले आधुनिक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग होने लगा है जिससे नैसर्गिक उत्पादन क्षमता में हृास हुआ है और पर्यावरण पर कुप्रभाव पड़ा है। आबादी जैसे जैसे बढ़ेगी, वस्त्र, आवास और अन्न की समस्या भी उत्पन्न होगी। इस समस्या का समाधान करने के लिए एक ओर वनों को और भी काटना व धरती का दोहन और अधिक शुरू हो जायेगा तो दूसरी ओर जीव-हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ेगी। पर्यावरण का संबंध मात्र प्राकृतिक संतुलन से नहीं है बल्कि आध्यात्मिक और सामाजिक वातावरण को परिशुद्ध और पवित्र बनाये रखने के लिए भी किया जाता है।
उपर्युक्त पर्यावरण प्रदूषण के भयानक दुष्परिणामों से बचने के लिए अब यह आवश्यक है कि हम प्रदूषण स्रोतों को नियंत्रित करें, वनीकरण और वृक्षारोपण संबंधी आंदोलन जैसे कल्याणकारी कदमों को स्वीकार करें। औद्योगिक विकास को रोके बिना प्रदूषित पदार्थों को कुशलता पूर्वक निस्तारित करने की योजना बनायें, रासायनिक अवशिष्ट पदार्थों को जल में न बहाकर उनको खाद आदि जैसे उपयोगी पदार्थ में परिवर्तित करें, जनसंख्या को नियंत्रित करें, ( इसके लिए हाल ही में जनसंख्या अभियान देश में व्यापक रूप से चल रहा है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्याओं को दूर करने के लिए जनचेतना को जाग्रत करनी होगी और लोगों को समझाना होगा कि शुद्ध पर्यावरण ही हमारा जीवन है। भावी पीढ़ी को पर्यावरण प्रदूषण से बचाना होगा ।
इसलिए यदि आज वर्तमान में हम संसार को बदलना चाहते हैं , तो हमें पर्यावरण को स्वच्छ करना होगा । मौजूदा वायुमंडल को परम तत्वों से भरना होगा और इसे सकारात्मक तरंगें देनी होंगी । प्राण वायु के संचार के लिए प्रतिज्ञा करनी होगी ।अब समय आ गया है, हम पूरे वातावरण/वायुमंडल को बदलने की प्रक्रिया को शूरू करने के लगभग निकट हैं । बस अपनी इच्छा शक्ति की ज्वाला को जगाना होगा ।
शास्त्रों के हिसाब से पृथ्वी पर चारों युग गुजर चुके हैं, इस लिए उसे हम आधी प्रलय आ गई है, कह सकते हैं । प्रलय का अर्थ है विध्वंस या विनाश (सब कुछ जल में समा जाना) प्रलय के बाद मात्र सत्य प्रधान आत्माएँ ही शेष रह जाती हैं , यानि सकारात्मक सोच वाली आत्माएँ। नकारात्मक सोच वाली आत्माएँ नष्ट हो जाती हैं, शास्त्रों के अनुसार ऐसे ही इकहत्तर बार अर्ध प्रलय हुई । चार युगों के एक चक्र को हम एक युगांतर कहते हैं । इसी तरह इकहत्तर युगांतर होने पर धरती पर पूर्ण प्रलय होती है या पूर्ण विनाश होता है , और तब मनु और शतरूपा का समय समाप्त हो जाता है ।
“ज़िंदगी साँसे छोड़ना है , ना कि साँसों को थामे रहना” अगर सासें भरेंगे नहीं तो छोड़ेगे कैसे। सांसों का लेना व छोड़ना एक प्राकृतिक क्रिया है उसके लिए पर्यावरण का शुद्ध होना महत्वपूर्ण है।

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