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बीजेपी की 60 फीसदी वोट वाली सियासत उत्तर प्रदेश में जमीन पर कितनी कारगर

उत्तर प्रदेश चुनाव का सियासी मौसम अपने उफान पर है. राजनीतिक पार्टियां सत्ता की कुर्सी के लिए हर समीकरण बैठा रही हैं. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव जहां इस बार जाति आधारित छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियों के सहारे सत्ता में वापसी की राह ढूंढ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सत्तारूढ़ बीजेपी भी जातीय समीकरणों (UP Cast Equations) को साध कर फिर से सत्ता में वापसी करना चाहती है. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी (BJP) का एक ही मिशन है कि किसी भी तरह से देश और उत्तर प्रदेश के ओबीसी समुदाय को अपने पाले में लाया जाए. इस बार के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी इसी ओबीसी समाज के बलबूते 60 फ़ीसदी वोटों पर अपना दावा ठोक रही है.

कुछ दिन पहले ही बीजेपी नेता और उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा था कि इस बार उत्तर प्रदेश में 100 में से 60 फ़ीसदी वोट हमारा है और बाकी के 40 फ़ीसदी वोटों में बंटवारा है. केशव प्रसाद मौर्या की बातें हवा-हवाई नहीं थीं, दरअसल उत्तर प्रदेश में लगभग 52 फ़ीसदी ओबीसी वोट बैंक है, जिसमें से 43 फ़ीसदी वोट गैर-यादव बिरादरी का है, जो 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी की ओर अपना रुख किए हुए हैं. जबकि अगर दलितों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में 22 फ़ीसदी दलित मतदाता हैं, जिनमें से 10 फीसदी गैर जाटव दलित और 12 फ़ीसदी जाटव दलित हैं. बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती इन्हीं 12 फ़ीसदी जाटव दलितों को अपना कोर वोट बैंक मानती हैं, जबकि बाकी के 10 फ़ीसदी बीजेपी की ओर अपना रुझान किए हुए हैं.

60 फ़ीसदी वोटबैंक का समीकरण समझिए

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ऐसे ही नहीं 60 फ़ीसदी वोटों की बात करती है, उसके लिए बीजेपी ने बकायदा एक प्लान बनाया है जो 2014 से ही सक्रिय है. इस वक्त उत्तर प्रदेश में 40 फ़ीसदी गैर यादव ओबीसी वोट बैंक को साधने के लिए एक तरफ जहां केशव प्रसाद मौर्य जो सूबे के उपमुख्यमंत्री हैं, मौर्य समाज को बीजेपी के पाले में लाने का प्रयास कर रहे हैं. तो वहीं दूसरी और कुर्मी समाज से आने वाले स्वतंत्र देव सिंह को भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बनाया हुआ है, ताकि वह कुर्मी समुदाय के वोट बैंक को बीजेपी के पाले में ला सकें.

सवर्णों की बात करें जो सूबे की 18 फ़ीसदी आबादी है तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद क्षत्रिय समाज से आते हैं. वहीं उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ब्राह्मण समाज से आते हैं. वहीं अगर राज्य की दलित आबादी की बात करें तो सितंबर में हुए योगी कैबिनेट के एक्सपेंशन में इसका खास ध्यान रखा गया था. इसी के मद्देनजर संजय गौड़, दिनेश खटीक और बलरामपुर सदर से विधायक पलटू राम को उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री बनाया गया था, यह तीनों नेता दलित समुदाय से जुड़े हैं और सूबे में दलितों की राजनीति करते हैं.

पूरे उत्तर प्रदेश में फैला है ओबीसी वोट बैंक

उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोट बैंक को देखें तो हर जिले में अलग-अलग ओबीसी जातियों का वर्चस्व दिखता है. एक तरफ जहां मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, इलाहाबाद, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और बस्ती में 12 फ़ीसदी कुर्मी समुदाय का वर्चस्व है. तो वहीं फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, बदायूं, कन्नौज, कानपुर देहात, जालौन, झांसी, ललितपुर और हमीरपुर में 7 से 10 फीसदी मौर्य और कुशवाहा जातियों का वर्चस्व है. यूपी में लगभग 10 फ़ीसदी लोध समुदाय की आबादी है जिसका फैलाव रामपुर, बुलंदशहर, अलीगढ़, आगरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी, पीलीभीत, लखीमपुर, उन्नाव, शाहजहांपुर, हरदोई, झांसी ललितपुर, हमीरपुर और महोबा जैसे जिलों में है. इसी तरह पाल, गडरिया, बघेल, राजभर, नोनिया, चौहान, मल्लाह, निषाद, लोहार, कुम्हार जैसी जातियां भी समूचे उत्तर प्रदेश में फैली हुई हैं. जो समय-समय पर राजनीतिक पार्टियों का समर्थन कर उन्हें सत्ता तक पहुंचाती रहती हैं.

2017 और 2019 के चुनावों में भी बीजेपी को मिला था समर्थन

इन तमाम गैर यादव ओबीसी वोट बैंक का समर्थन भारतीय जनता पार्टी को 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मिला था. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ी जातियों के वोटरों को साधने के लिए लगभग 1 से डेढ़ महीने तक 2018 में ही पिछड़ी जातियों का सम्मेलन कराया था. जिनमें कुशवाहा, कुर्मी, मौर्य, यादव, निषाद समेत कई पिछड़ी जातियां शामिल हुई थीं. बीजेपी ने उस वक्त जो समीकरण गैर यादव ओबीसी वोट बैंक का सेट किया था, वह अभी तक अनवरत जारी है. हालांकि राजभर समुदाय के नेता ओमप्रकाश राजभर जरूर इस बार बीजेपी से अलग होकर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए हैं. लेकिन बाकी की अन्य जातियां आज भी किसी और राजनीतिक दल के मुकाबले बीजेपी की ओर ज्यादा झुकाव महसूस करती हैं.

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