राजनीति

क्यों नहीं विश्वासपात्र बन पा रहा है चालाक दोस्त !

क्यों नहीं विश्वासपात्र बन पा रहा है चालाक दोस्त !
लेखक:सर्वेश तिवारी
चीन फिर चाल चल रहा है। ऐसी चाल जिससे भारत को नागवार गुजरना लाजिमी है। दरअसल वो अक्साई चिन से होकर गुज़रने वाले एक और हाइवे के निर्माण की योजना बना रहा है। इस हाइवे को जी-695 नाम दिया गया है जो विवादित अक्साई चिन से होकर गुज़रने वाला दूसरा राष्ट्रीय राजमार्ग होगा। साउथ-चाइना मॉर्निंग पोस्ट के मुताबिक़, यह नया हाई-वे जी219 की तुलना में वास्तविक नियंत्रण रेखा से कहीं अधिक निकट से होकर गुज़रेगा। ये उन क्षेत्रों के बेहद क़रीब से होकर गुज़रेगा जिन्हें लेकर चीन और भारत के बीच विवाद है। जिनमें से एक डोकलाम का इवाका भी आता है।
लद्दाख के अक्साई चिन इलाक़े को भारत अपना क्षेत्र मानता है मगर वहां चीन का नियंत्रण है। भारत दावा करता है कि चीन ने 1962 के युद्ध के दौरान वहां क़रीब 38,000 स्क्वायर किलोमीटर की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया था। माना जा रहा है कि दूसरे विवादित हाइवे को चीन 2035 तक तैयार कर लेगा। इसी हफ्ते बीजिंग ने एक नए नेशनल रोड नेटवर्क प्लान की शुरुआत की है, जिसके तहत 461000 किलोमीटर सड़क का निर्माण होगा। जिसमे 162000 किलोमीटर नेशनल एक्सप्रेसवे होगा, 299000 किलोमीटर प्रोविंसिल हाइवे होगा, जिसे 2035 तक तैयार कर लिया जाएगा। इस प्लान के तहत सभी शहर एक लाख आबादी के साथ इस राष्ट्रीय हाइवे से 30 मिनट के समय में एक दूसरे के साथ जुड़ जाएंगे। चीन को लेकर भारत जो भी सोचता रहे वो अपनी विस्तारवादी सोच और नीति में कोई बदलाव नहीं करता है। इतिहास गवाह है भारत ने जब -जब चीन के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया उसने भारत के साथ धोखा ही किया है। चीन में जितने भी शासक हुए हैं सभी की ये ही सोच रही है।
जब से चीन में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई, सारा राजकाज अत्यन्त गुपचुप तरीके से चलता रहा है। बाहर की दुनिया को उसके बारे में कोई खबर नहीं होती है। ये परम्परा माओ के समय से है। बाहर की दुनिया को न तो माओ-त्से-तुंग के बारे में कभी कोई खबर मिली न ही उनके बाद सत्ता संभा लने वाले देंग शियाओ‍ पिंग के बारे में। 1976 में माओ-त्से-तुंग की मृत्यु हो गई उसके बाद देंग एक अत्यंत ही ताकतवर नेता होकर उभरे और 1978 आते-आते उन्होंने चीन का प्रशासन अपने मजबूत हाथों में ले लिया और सच कहा जाए तो उन्होंने आर्थिक मामलों में चीन का कायापलट कर दिया। लेकिन चीन के दूसरे मसले भी ऐसे ही ख़ुफ़िया तरीके से चलते हैं। पड़ोसी देश की जमीन पर कब्जे का मसला हो या निवेश के बहाने घुसपैठ की साजिश। चीन के शासकों का प्रिय शगल रहा है। हैरत की बात तो ये है कि ये वो देश है जो खुद को साम्यवाद समर्थक होने का दावा करता है।
अगर दुनिया की तरफ देखे तो एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले एशिया के दो विकासशील देशों ने पिछले दो दशकों में काफी तरक्की की है। मगर शांति के साथ साथ दोनों देशों के बीच जाने अनजाने तना तनी भी देखने को मिलती रही है। बावजूद इसके भारत ने संयम नहीं खोया। एशिया के दो बड़े मुल्कों में प्रगाढ़ता बनी रहे ये जरुरी भी है।
वर्तमान हालात में राजनयिक संबंधों में बेहतरी की बात कुछ अजीब जरूर है, लेकिन हकीकत यही है की 1950 में दोनों देशों के तबके नेताओं ने कई अहम् फैसले किये थे। राजनयिक स्थिरता और शांति बनाये रखने के लिए दोनों देशों ने पांच सिद्धांतों पर साथ चलने का संकल्प लिया। जिसके बाद लम्बे वक्त तक हिंदी -चीनी भाई भाई का नारा गूंजता रहा। विकास की तरफ अग्रसर भारत ने अपने देश हित में कई ऐसे काम किये जो पड़ोसी देशों को कभी रास आए ही नहीं । चीन के साथ भी ऐसा ही हुआ। उसने भारत के सीमावर्ती इलाकों में विकास कार्यों पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। कई बार उसने भारत पर दोनों देशों के बीच हुए समझौतों को नज़र अंदाज करने तक का आरोप मढ़ दिया। खासकर पंचशील समझौते की अनदेखी का। हद तो तब हो गई जब लद्दाख क्षेत्र में चीनी सैनिक घुसपैठ करने लगे।
दरअसल 29 अप्रैल, 1954 को भारत और चीन के बीच जो पंचशील समझौता हुआ था वो आजादी के बाद से ही चीन, भारत की विदेश नीति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा माना जाता रहा है। भारत और चीन के बीच लगभग 3,500 किलोमीटर की सीमा रेखा है। जिसे लेकर दोनों देशों के बीच कई मतभेद हैं। बीच-बीच में दोनों देशों में तनाव पैदा होने की बड़ी वजह भी यही है। ऐसे में भारत-चीन के बीच जब भी तनाव पैदा होता तो पंचशील सिद्धांत की बात जरुर आती है। तब सवाल ये भी उठने लगता है कि क्या चीन इस समझौते की आड़ में अपना हित तो नहीं साध रहा। चीन का छल तब खुल कर सामने आ जाता है जब भारत पर ही वो समझौते से हटने का आरोप लगा देता है। सारे विवाद की असल जड़ पर नजर से पहले उस समझौते पर चर्चा जरुरी है कि पंचशील है क्या ?
पंचशील शब्द ऐतिहासिक बौद्ध अभिलेखों से लिया गया है। बौद्ध अभिलेखों में भिक्षुओं के व्यवहार को निर्धारित करने के लिए पंचशील नियम मिलते हैं। बौद्ध अभिलेखों से ही भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने पंचशील शब्द को चुना था। 31 दिसंबर 1953 और 29 अप्रैल 1954 को हुई बैठक के बाद भारत-चीन ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए। समझौते के प्रस्तावना में जिन पांच बातों का उल्लेख था उनमें एक दूसरे की अखंडता और संप्रुभता का सम्मान, एक दूसरे पर आक्रमण न करना, एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देना,सामान और परस्पर लाभकारी सम्बन्ध के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व शामिल था। समझौते के बाद भारत और चीन के बीच तनाव काफी कम हो गया, जिससे भारत को यह समझौता फायदेमंद लग रहा था। इस समझौते की हर जगह तारीफ हो रही थी। शुरूआती दौर में इस समझौते के बाद ऐसा लग रहा था कि दुनिया की दो बड़ी सभ्यताओं ने साथ रहने की नई मिशाल पेश की है। पर हिंदी-चीनी भाई-भाई के पीछे कुछ जरुरी बातें दब गयी। इसकी बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी। समझौते के तहत भारत ने तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र स्वीकार कर लिया।
जानकारों कि माने तो भारत को 1904 की ऐंग्लो तिब्बतन ट्रीटी के तहत तिब्बत के सम्बन्ध में जो अधिकार मिले थे, उसने वे सारे अधिकार इस संधि के बाद छोड़ दिए। इस पर नेहरु का जवाब था कि उन्होंने क्षेत्र में शान्ति को सबसे ज्यादा अहमियत दी और चीन के रूप में एक विश्वनीय दोस्त देखा। लेकिन आज तस्वीर उलटी नजर आ रही है। भारत की मौजूदा मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद चीन चल चलने से बाज नहीं आ रहा है , ये जानते हुए भी की भारत से अब किसी तरह गड़बड़ी उसके लिए भी घातक साबित हो सकती है।

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