शुभांशु शुक्ला ने अंतरिक्ष में किए सात प्रयोग, अंतरिक्ष महाशक्ति बनने के करीब पहुंचे भारत को मिलेगी नई दिशा

करीब चार दशक के बाद अंतरिक्ष यात्रा पर गए दूसरे भारतीय ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला ने वहां कुल सात प्रयोग किए। यह प्रयोग हैं, माइक्रोएल्गी अध्ययन, स्यानोबैक्टीरिया पर शोध,मानव अपशिष्ट से प्राप्त नाइट्रोजन स्रोत, वॉयेजर टार्डीग्रेड्स, मायोजेनेसिस प्रयोग, सायनोबैक्टीरिया प्रयोग व कंप्यूटर स्क्रीन का आंखों पर पड़ने वाले असर पर शोध। शुभांशु की अंतरिक्ष यात्रा इसरो के मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम (एचएसपी) के तहत मील का पत्थर साबित हुई है।
भारत अंतरिक्ष महाशक्ति बनने के करीब पहुंचता दिख रहा है। वर्ष1984 में राकेश शर्मा के मिशन के बाद दूसरी बार भारत ने शून्य गुरुत्वाकर्षण में देश की बढ़ती तकनीकी आत्मनिर्भरता, वैश्विक सहयोग और अंतरिक्ष समुदाय में सार्थक योगदान का झंडा फहरा दिया है। भारत ने अंतरिक्ष जीवविज्ञान और लाइफ सपोर्ट सिस्टम (जीवन समर्थन प्रणालियों) में अत्याधुनिक प्रयोग किए हैं। जिससे अंतरिक्ष में मानव जीवन को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।
एक्सिओम मिशन 4 भारत, पोलैंड और हंगरी के लिए अंतरिक्ष उड़ान में मनुष्य की भागीदारी का शिलालेख बन गया है। यह ऐतिहासिक मिशन रेखांकित करता है कि कैसे एक्सिओम स्पेस पृथ्वी की निचली कक्षा तक पहुंच के रास्ते को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है। शुभांशु शुक्ला एक्सिओम 4 में मिशन पायलट थे और उनके साथ अंतरराष्ट्रीय दल जिसकी कमान अमेरिका की कमांडर पेगी व्हिटसन के हाथ में रही। लखनऊ आए शुभांशु शुक्ला ने अमृत विचार के वरिष्ठ संवाददाता मारकंडेय पांडेय से अनौपचारिक वार्ता के बाद अपने संदर्भित विचार साझा किए।
वैज्ञानिक फोकस
ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला ने बताया कि अंतरिक्ष मिशन से संचालन तत्परता (आपरेशनल रेडिनेस) और वैज्ञानिक प्रयोगों पर विशेष जोर दिया गया। भोजन और पोषण से जुड़े अग्रणी प्रयोग किए गए। जिन्हें इसरो जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) और नासा के बीच सहयोग से विकसित किया गया है। इन प्रयोगों का उद्देश्य अंतरिक्ष पोषण और क्लोज़्ड लूप जीवन समर्थन प्रणालियों में जानकारी हासिल करना है, जो भविष्य के दीर्घकालिक अंतरिक्ष मिशन के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा।
प्रमुख जैविक प्रयोग:
1-माइक्रोएल्गी अध्ययन
यह अध्ययन बताएगा कि माइक्रोग्रैविटी (अतिलघु गुरुत्वाकर्षण) और अंतरिक्ष विकिरण खाद्य योग्य माइक्रोएल्गी (सूक्ष्म शैवाल) की वृद्धि और पोषण प्रोफ़ाइल को कैसे प्रभावित करते हैं। ये माइक्रोएल्गी अंतरिक्ष में सतत पोषण और ऑक्सीजन उत्पादन के लिए संभावनाशील मानी जाती हैं। मेथी, मूंग और हरे चने के बीजों को अंतरिक्ष में अंकुरित करने का प्रयास किया गया जिससे समझा जा सके कि शून्य गुरुत्वाकर्षण में उनका विकास कैसा होता है। माइक्रोएल्गी यानी सूक्ष्म शैवाल पर माइक्रोग्रैविटी के असर के अध्ययन से जुड़ा रहा। ये सिंगल सेलुलर यानी एककोशिकीय शैवाल होते हैं। इस मिशन के तहत तीन तरह के माइक्रोएल्गी स्पेस स्टेशन में ले जाए गए। ये मीठे पानी और समुद्री वातावरण दोनों में पाए जाते हैं।
2-स्यानोबैक्टीरिया अनुसंधान
यह स्पाइरुलिना और सायनेकोकोकस की माइक्रोग्रैविटी में वृद्धि और चयापचयी प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया गया। जिसमें नाइट्रोजन स्रोतों के उपयोग का अध्ययन भी शामिल है। फसलों के बीजों पर किए गए प्रयोग में अंतरिक्ष की माइक्रोग्रैविटी का उनके जेनेटिक गुणों पर प्रभाव देखा गया, जिससे भविष्य में अंतरिक्ष में खेती संभव हो सकेगी। माइक्रोग्रैविटी का बीजों के जेनेटिक गुणों पर क्या असर पड़ता है। इसके लिए छह तरह की फसलों के बीजों पर शोध किया गया। भविष्य में होने वाली अंतरिक्ष यात्राओं में इंसान को अंतरिक्ष में ही फसल उगाने की जरुरत पड़ेगी। ये प्रयोग उसी की तैयारी के सिलसिले में किया गया। केरल कृषि विश्वविद्यालय ने इस रिसर्च का प्रस्ताव दिया था, जो भविष्य के मानव मिशन के काफ़ी काम आएगी।
3-मानव अपशिष्ट से प्राप्त नाइट्रोजन स्रोत
यह शोध भविष्य के अंतरिक्ष आवासों के लिए आत्मनिर्भर जीवन समर्थन प्रणाली (सेल्फ सस्टेनिंग लाइफ सपोर्ट सिस्टम) विकसित करने की दिशा में एक कदम है। माइक्रोएल्गी को ही माइक्रोग्रैविटी में इनका विकास कर ये देखा गया कि क्या भविष्य के लंबे मिशन में अंतरिक्षयात्रियों के पोषण में उनकी भूमिका हो सकती है। पौधों की तरह फोटोसिंथेसिस से ये ऑक्सीजन बनाते हैं और कार्बन को अवशोषित करते हैं। अंतरिक्ष में माइक्रोग्रैविटी में ऑक्सीजन रिसाइक्लिंग में भी उनकी भूमिका पर शोध किया गया।
4-वॉयेजर टार्डीग्रेड्स
अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर इसरो के भेजे गए टार्डीग्रेड्स (एक अत्यधिक सहनशील सूक्ष्मजीव) के पुनर्जीवन, जीवनकाल और प्रजनन की जांच की गई। इस परियोजना में निष्क्रिय टार्डीग्रेड्स के पुनर्जीवन, मिशन के दौरान डाले गए अंडों की संख्या और उनमें से कितने फूटे, और अंतरिक्ष में गए जीवों बनाम पृथ्वी पर नियंत्रण समूह के बीच जीन अभिव्यक्ति पैटर्न की तुलना की गई। इस शोध का उद्देश्य जीवन की सहनशीलता से संबंधित आणविक तंत्रों की पहचान करना है, जिसका उपयोग अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवन की सीमाओं को समझने में हो सकता है। यह ज्ञान न केवल भविष्य की अंतरिक्ष खोजों को दिशा देगा, बल्कि पृथ्वी पर जैव प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों (बायोटेक्नालाजी अप्लीकेशन) के विकास में भी सहायक हो सकता है।
आठ पैरों वाले टार्डीग्रेड्स को दुनिया का सबसे कठोर और सहनशील जीव माना जाता है। ये धरती पर 60 करोड़ साल से जी रहे हैं। डायनासोर से भी करीब 40 करोड़ साल पहले के हैं। ये कई वर्ष तक बिना भोजन पानी के रह सकते हैं, भयानक गर्मी झेल सकते हैं, रेडिएशन और वैक्यूम में भी ज़िंदा रह सकते हैं। इसके लिए ये अपने मैटाबोलिक फंक्शन को बिलकुल रोक लेते हैं। इनके शरीर की इन ख़ूबियों पर माइक्रोग्रैविटी के असर का अध्ययन किया गया है। ये भी जानने की कोशिश की गई कि कि वो अंतरिक्ष की परिस्थितियों में कैसे प्रजनन करते हैं।
5- मायोजेनेसिस प्रयोग
इसमें माइक्रोग्रैविटी के मांसपेशियों पर प्रभाव का अध्ययन किया गया, जो अंतरिक्ष यात्रियों और बुजुर्गों के लिए उपयोगी होगा। इसके तहत अंतरिक्ष में माइक्रोग्रैविटी के मांसपेशियों पर असर का अध्ययन किया गया। अंतरिक्ष में लंबा समय बिताने वाले अंतरिक्षयात्रियों की मांसपेशियां घटने लगती हैं, कमज़ोर पड़ने लगती हैं। भारत का इस्टीट्यूट आफ स्टेम सेल साइंस एंड रिजेनरेटिव मेडिसीन माइक्रोग्रैविटी मंत होने वाले इस प्रयोग के तहत मांसपेशियों से जुड़ी बीमारियों का आगे अध्ययन करेगा और ऐसे इलाज विकसित कर सकेगा जो भविष्य में अंतरिक्ष यात्रियों और बुज़ुर्गों के लिए काफ़ी कारगर हों।
6-सायनोबैक्टीरिया
स्पेस स्टेशन में बैक्टीरिया की दो किस्मों पर शोध हुआ। ये बैक्टीरिया सायनोबैक्टीरिया कहा जाता है जिसे आम भाषा में ब्लू-ग्रीन एल्गी भी कहते हैं। ये प्रकाश संष्लेषण (फोंटोसिंथेसिस) में सक्षम है। यानी प्रकाश और ऑक्सीजन के इस्तेमाल से अपना खाना बनाता है और कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ता है। ये देखा गया कि माइक्रोग्रैविटी का सायनो बैक्टीरिया पर कैसा असर पड़ता है। उसकी जैव रसायनिक यानी बायोकैमिकल प्रक्रियाओं में किस तरह के बदलाव आते हैं। भविष्य में लंबे अंतरिक्ष मिशन में इंसान के जीने लायक परिस्थिति बनाने के लिए ये प्रयोग भी काफी अहम है।
7-कंप्यूटर स्क्रीन का आंखों पर असर
सातवें प्रयोग में यह देखा गया कि अंतरिक्ष में माइक्रोग्रैविटी की परिस्थितियों में कंप्यूटर स्क्रीन का आंखों पर कैसा असर पड़ता है। आंखों के मूवमेंट, उनकी एक चीज़ पर ध्यान लगाने की क्षमता का अध्ययन किया गया। अंतरिक्ष यात्रियों को अपने काम के सिलसिले में कंप्यूटर स्क्रीन का काफी इस्तेमाल करना होता है। जो उनके अंदर स्ट्रेस को भी बढ़ाता है। इस प्रयोग में इस सबका अध्ययन किया गया है।
अन्य अनुसंधान:
-अंतरिक्ष स्टेशन पर फसल बीज
-मायोजेनेसिस (मांसपेशी विकास)
-स्टेम मोनोस्ट्रेशन (स्टेक शिक्षा हेतु प्रयोग)
-अंकुर
-वॉयेजर डिस्प्ले
अंतरिक्ष में गई टीम द्वारा कुल 60 से अधिक प्रयोग किए गए। जिनमें से सात भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (डीआरडीओ) द्वारा डिजाइन किए गए थे। अंतरिक्ष उड़ान संचालन, सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में अनुकूलन और आपातकालीन तैयारी जैसे क्षेत्रों में व्यावहारिक अनुभव वैज्ञानिकों को मिला है। ये सभी पहलू भारत के आगामी स्वदेशी मानव अंतरिक्ष मिशनों विशेष रूप से गगनयान मिशन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
इसरो की बड़ी छलांग
जनवरी 2015 से दिसंबर 2024 तक के पिछले दस वर्षों में इसरो के पीएसएलवी, एलवीएम3 और एसएसएलवी प्रक्षेपण यानों के माध्यम से कुल 393 विदेशी उपग्रहों और 3 भारतीय ग्राहक उपग्रहों का व्यावसायिक आधार पर प्रक्षेपण किया गया है। भारत ने अब तक 34 देशों के उपग्रह प्रक्षेपित किए हैं, जिनमें कई विकसित देश भी शामिल हैं। वर्ष 2014 से अब तक प्रक्षेपित देशों में संयुक्त राज्य अमेरिका (232), यूनाइटेड किंगडम (83), सिंगापुर (19), कनाडा (8), कोरिया (5), लक्ज़मबर्ग (4), इटली (4), जर्मनी (3), बेल्जियम (3), फिनलैंड (3), फ्रांस (3), स्विट्ज़रलैंड (2), नीदरलैंड (2), जापान (2), इज़राइल (2), स्पेन (2), ऑस्ट्रेलिया (1), संयुक्त अरब अमीरात (1), ऑस्ट्रिया (1) । 15 फरवरी 2017 को इसरो ने एक ही मिशन में 104 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया था। जो आज तक का एक अटूट विश्व रिकॉर्ड है। पिछले 11 वर्षों में इसरो ने 100 अंतरिक्ष प्रक्षेपण मिशन को सफलतापूर्वक पूरा किया है।
बजट:
भारतीय अंतरिक्ष मिशन का बजट वर्ष 2013-14 में 5,615 करोड़ रुपये से बढ़कर 2025-26 में 13,416 करोड़ रुपये हो गया है। स्पाडेक्स मिशन पृथ्वी की कक्षा में बढ़ती स्पेस डेब्रिस (अंतरिक्ष मलबा) की समस्या को हल करने के लिए एक नई पहल है। गगनयान कार्यक्रम को लगभग 20,193 करोड़ रुपये की वित्तीय मंजूरी के साथ स्वीकृत किया गया। भारत की पहली स्वदेशी मानव अंतरिक्ष उड़ान पहल है। इसका उद्देश्य भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को निम्न पृथ्वी कक्षा में भेजना है, जो भविष्य के अधिक उन्नत अंतरिक्ष अभियानों की नींव रखेगा। अब 2035 तक भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन (भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन -बीएएस) की स्थापना और 2040 तक भारतीय मानवयुक्त यान चंद्रमा पर उतराने की तैयारी है। पहली मानव अंतरिक्ष उड़ान को 2027 की पहली तिमाही में प्रक्षेपित करने की योजना है। जिसके लिए ह्यूमन रेटेड एलएमवी 3 प्रक्षेपण यान, क्रू एस्केप सिस्टम और क्रू मॉड्यूल व सर्विस मॉड्यूल सभी परीक्षण और एकीकरण के अंतिम चरण में हैं, वहीं अंतरिक्ष यात्रियों का प्रशिक्षण भी जारी है।
आर्थिक और औद्योगिक प्रभाव
-यह कार्यक्रम औद्योगिक भागीदारी और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देगा।
-विशेष रूप से उच्च प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में रोजगार सृजन होगा, जैसे कि अंतरिक्ष और उससे संबंधित उद्योग।
रणनीतिक महत्व
-तकनीकी प्रगति और सह-लाभ
क्रायोजेनिक इंजन, हल्की सामग्री, जीवन समर्थन प्रणाली, और रोबोटिक्स जैसी अत्याधुनिक तकनीकों का विकास होगा, जिनका उपयोग एयरोस्पेस, ऑटोमोबाइल, स्वास्थ्य और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में किया जा सकेगा।
-रोजगार सृजन
यह मिशन एयरोस्पेस उद्योग, अनुसंधान संस्थानों और संबद्ध क्षेत्रों में हजारों रोजगार उत्पन्न करेगा। स्वदेशी अंतरिक्ष तकनीक के विकास से निवेश आकर्षित होंगे, घरेलू विनिर्माण को बल मिलेगा और आर्थिक वृद्धि में योगदान होगा।
त्रिसना मिशन की योजना प्रारंभिक चरण में
नीसार (नासा के साथ संयुक्त मिशन) और एएक्स-4 में शुभांशु शुक्ला की भागीदारी भारत की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय भूमिका को दर्शाती है। इसरो और सीएनईएस (फ्रेंच अंतरिक्ष एजेंसी) द्वारा त्रिसना (थर्मल इन्फ्रारेड इमेजिंग सैटेलाइट) मिशन की योजना बनाई गई है, जो प्रारंभिक चरण में है। इसरो और जेएएक्सए (जापान अंतरिक्ष एजेंसी) ने संयुक्त चंद्र ध्रुवीय मिशन के लिए व्यावहारिक अध्ययन किया है। जनवरी 2025 में इसरो और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने अंतरिक्ष यात्री प्रशिक्षण, मिशन क्रियान्वयन और अनुसंधान प्रयोगों में सहयोग के लिए समझौता किया। यह समझौता संयुक्त माइक्रोग्रैविटी प्रयोगों का अवसर प्रदान करता है।