
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को यह सवाल उठाया कि क्या भारत संविधान निर्माताओं की उस अपेक्षा पर खरा उतर पाया है, जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच आपसी तालमेल होगा और दोनों के बीच विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श किया जाएगा। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने यह टिप्पणी तब की, जब केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने राज्यपाल की नियुक्ति और उनकी शक्तियों पर संविधान सभा में हुई चर्चा का उल्लेख किया। इस पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए. एस. चंदुरकर भी शामिल हैं।
मेहता ने पीठ को बताया कि कई बार की गई आलोचनाओं के उलट, राज्यपाल का पद केवल राजनीतिक आश्रय प्राप्त करने वालों के लिए नहीं है, बल्कि संविधान के तहत उनके पास कुछ निर्धारित शक्तियां और जिम्मेदारियां हैं। सॉलिसिटर जनरल ने राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए संदर्भ पर अपनी दलीलें देते हुए कहा कि संविधान की संघीय संरचना को ध्यान में रखते हुए संविधान सभा में राज्यपालों की भूमिका और नियुक्ति पर गहन विचार-विमर्श हुआ था।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शीर्ष अदालत से यह जानना चाहा था कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति के विवेकाधिकार के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है। इससे पहले मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और अटॉर्नी जनरल से उन विधेयकों के बारे में सवाल किया था, जो राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित होने के बाद लंबे समय से राज्यपालों के पास लंबित हैं। कोर्ट ने उन परिस्थितियों का भी जिक्र किया, जहां 2020 से कुछ विधेयक लंबित हैं।
अदालत ने स्पष्ट किया कि वह केवल कानून के दायरे में अपनी राय देगी और तमिलनाडु मामले में आठ अप्रैल के फैसले पर कोई टिप्पणी नहीं करेगी, जिसमें राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित की गई थी। तमिलनाडु और केरल सरकारों द्वारा राष्ट्रपति के परामर्श की विचारणीयता पर उठाई गई प्रारंभिक आपत्तियों का जवाब देते हुए, पीठ ने कहा कि वह अपने परामर्शी क्षेत्राधिकार का उपयोग करेगी, न कि अपीलीय क्षेत्राधिकार का।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए शीर्ष अदालत से यह जानने की कोशिश की थी कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार के लिए राष्ट्रपति के विवेकाधिकार हेतु समय-सीमा तय की जा सकती है। केंद्र ने अपनी लिखित दलील में कहा कि राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित करना संवैधानिक व्यवस्था को बाधित कर सकता है, क्योंकि यह सरकार के किसी अंग द्वारा ऐसी शक्ति का उपयोग होगा, जो संविधान ने उसे प्रदान नहीं की है।
सुप्रीम कोर्ट ने आठ अप्रैल को तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में राज्यपाल की शक्तियों पर दिए गए फैसले में पहली बार यह व्यवस्था दी थी कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा उनके विचार के लिए भेजे गए विधेयकों पर संदर्भ प्राप्त होने की तारीख से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। राष्ट्रपति मुर्मू ने अपने पांच पेज के परामर्श में शीर्ष अदालत से 14 सवाल पूछे और अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करने में राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों पर राय मांगी।