उत्तर प्रदेशलखनऊ

मैं न चाहता युग युग तक पृथ्वी पर जीना…

  • उत्तराखंड के साहित्य रत्न कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की पीड़ा झलकी थी इन पंक्तियों में

लखनऊ। ‘मैं न चाहता युग युग तक पृथ्वी पर जीना, पर इतना जी लूं जितना जीवन सुन्दर हो‘ उत्तराखंड के साहित्य रत्न कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल ने अपने जीवन की पीड़ा को कुछ इस तरह से अपनी पंक्तियों में बयां किया था। उनकी पुण्यतिथि पर आगमन संस्था की ओर से मंगलवार को वजीर हसन रोड स्थित बुध बसंती मुनाल सभागार काव्य गोष्ठी आयोजित की गई।

गोष्ठी में आयोजक संस्था की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रेखा बोरा व मुनाल संस्था के संस्थापक मुनालश्री विक्रम बिष्ट ने प्रकृति के चितेरे कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल के जीवन परिचय व उनकी कृतियों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया। कार्यक्रम का शुभारंभ डॉ अर्चना श्रीवास्तव की वाणी वंदना से हुआ। इस अवसर पर आए अतिथियो ने कविताओं में अपने प्रिय कवि को याद किया।

रेखा बोरा ने ‘मेरी मृत्युशय्या पर पूछा था तुमने.., डॉ रूबी राज सिन्हा ने ‘नारी तू ही कल्याणी…, मंजूषा श्रीवास्तव ने जीवन अभिशाप बना देते जो द्वेष भूलते कभी नहीं,,, वर्षा श्रीवास्तव ने जग निर्णायक बनकर जब जब दोष मढ़े़गा तुम पर…, रश्मि लहर ने रूठ जाऊँ अगर मना लेना मनुहार से.., भावना मौर्य ने दर्द अब हम छिपा नहीं सकते…., शशि तिवारी ने ज्योति जलने लगी.. , प्रेम पलने लगा…, उपमा आर्य ने कुछ न बोले कुछ न समझे आदमी…, अंजलि सारस्वत शर्मा ने चाहत तो मैंने ऐसी की..,

रत्ना बापुली ने इसी को कहते हैं जीना.., प्रतिभा श्रीवास्तव ने ये स्त्रियां, सुरभि श्रीवास्तव ने बस ये ही जन्म…, मनोज शुक्ल मनुज ने पढ़ सको यदि कभी प्रेम आखर पढ़ो…., कैप्टन अभय आनंद ने तिरंगे से लपेटा तन अमर परिधान लिख दूँगा.., , संजय सागर ने कैसी वफ़ा लिखेगी इस नये दौर की ज़बाँ ये, जितेन्दर पाल सिंह ने साया जो नज़र आए तो लगता है के तुम हो…, आनंद सरन ने कुछ ग़म ही हजारों खुशी पे भारी है…ं, राजेश मल्होत्रा ने तेरे नाम से मशहूर हूँ…. सुनाकर महफ़िल में वाहवाही लूटी।

मुनालश्री विक्रम बिष्ट ने बताया चंद्रकुंवर बत्वाल की कविताएँ 1933-34 यानी 14-15 वर्ष की उम्र में प्रकाशित होने लगी थीं । 1939 में 20 वर्ष की उम्र में अस्वस्थता के कारण लखनऊ विश्वविद्यालय से एम. ए. की पढ़ाई छोड़कर वे अपने पहाड़ के घर लौटे थे. उन्हें यक्ष्मा रोग हो गया था, जो उस वक्त एक असाध्य रोग माना जाता था. रोगी के साथ इतना अमानवीय व्यवहार किया जाता था कि आदमी में जीने की इच्छा ही खत्म हो जाती थी।

उसे सब लोगों से अलग गोशाला में रखा जाता था। जीवन के अंतिम तीन वर्ष चंद्रकुवर ने भी अपने गाँव पंवालिया के ऐसे ही ऐसे ही बिताए थे। इस रूप में उन्हें लेखन के लिए कुल मिलाकर दस-बारह वर्षों से अधिक की अवधि नहीं मिली. इतने कम समय में इतना महत्वपूर्ण लेखन उन्होंने हिंदी को दिया।

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